Tuesday, January 10, 2012

तुम जानो, तुमको ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो Tum jaano tumko gair se jo rasm-o-raah ho

तुम  जानो, तुमको  ग़ैर   से  जो  रस्म-ओ-राह  हो
मझको  भी  पूछते  रहो  तो  क्या  गुनाह  हो

बचते  नहीं  मुवाखज़:-ए-रोज़े  हश्र  से
कातिल  अगर  रक़ीब  है  तो  तुम  गवाह  हो

क्या  वो: भी  बेगुनह:  कुश-ओ-हक़  ना  शानस  है?
माना  के: तुम  बशर  नहीं,  खुरशीद-ओ-माह  हो

उभरा  हुआ  निक़ाब  में  है  उनके  एक  तार
मरता  हूँ  मैं  के:  ये:  न:  किसी  की  निगाह  हो

जब  मैकद:  छुटा  तो  फिर अब  क्या  जगह  की  कैद
मस्जिद  हो,  मदरस:  हो,  कोई  खानकाह  हो

सुनते  हैं  जो  बहिश्त  की  तअरीफ़  सब  दुरुस्त
लेकिन  ख़ुदा  करे  वो:  तेरा  जल्व:गाह  हो

'ग़ालिब'  भी  गर  न: हो, तो  कुछ  ऐसा  ज़रर  नहीं
दुनिया  हो  यारब,  और  मेरा  बादशाह  हो

                                         -मिर्ज़ा असद-उल्लाः खाँ 'ग़ालिब'
____________________________________________________________________
रस्म-ओ-राह=सम्बन्ध; मुवाखज़:=उत्तरदायित्व; रोज़े  हश्र=प्रलय का दिन; बेगुनह:  कुश=निर्दोशियों
का वधक(मारने वाला); ओ=और; हक़  ना  शानस=सत्य को न जानने वाला; बशर=मानव;
खुरशीद-ओ-माह=सूर्य, और चन्द्रमा; निक़ाब=नकाब; कैद=यहाँ कैद से अभिप्राय प्रतिबन्ध से है;
मैकद:=मदिरालय; मदरस:=मदरसा(पाठशाला); खानकाह=आश्रम; बहिश्त=स्वर्ग; तअरीफ़=प्रशंसा;
दुरुस्त=ठीक; जल्व:गाह=दृश्यस्थल; ज़रर=हानि(घाटा)