Sunday, May 22, 2011

हुई ताखीर, तो कुछ बाइसे ताखीर भी था Hui takhir, Toh kuch baaise takhir bhi tha

हुई ताखीर, तो कुछ बाइसे ताखीर भी था
आप आते थे, मगर कोई इनाँगीर भी था

तुमसे बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उससे कुछ शाइब-ए-खूबी-ए-तकदीर भी था

तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूं
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख्चीर भी था ?

कैद में है तेरे वहशी की वोही जुल्फ की याद
हाँ कुछ इक रंजे गराँ बारि-ए-जंजीर भी था

बिजली कोंद गई आँखों के आगे, तो क्या
बात करते, के: मैं लब तश्न:-ए-तक़रीर भी था

युसूफ उसको कहूँ और कुछ  न: कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़  बैठे, तो  मैं लायक़े तअज़ीर भी था

देखकर  गैर,  क्यों हो न: कलेजा ठंडा
नाल: करता था, वले तालिबे तासीर भी था

पेशे में ऐब नहीं, रखिए नः  'फरहाद' को  नाम
हम ही आशुफ़्ता सरों में वोः जवाँ  'मीर'  भी था

हम थे मरने को खड़े, पास नः आया, नः सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था

पकडे जातें हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक
आदमी कोई हमारा दमे तहरीर भी था ?

रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो  'ग़ालिब'
कहतें हैं, अगले ज़माने में कोई  'मीर' भी था  

                          -मिर्ज़ा असद-उल्लाः खाँ  'ग़ालिब'

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ताखीर=ढील,देर;  बाइसे=कारण;  बेजा=बिना कारण;  शाइब=मिलावट,शक;  खूबी-ए-तकदी=सौभाग्य;
फ़ितराक=शिकारी का थैला;  नख्चीर=शिकार किया हुआ जानवर;  वहशी=पागल;  बारि-ए-जंजीर=जंजीर
के बोझ का कष्ट;  कोंद=चमक देना;   तश्न:-ए-तक़रीर=प्यासे होटों की आवाज;  युसूफ=एक अवतार का
नाम जो अपनी सुन्दरता में प्रसिद्ध थे(यहाँ प्रेमी लिया गया है);  तअज़ीर=सजा के योग्य;  नाल:=रुदन(रोना)
तासीर=प्रभाव;  सरों=दीवानों,पागलों;  मीर=ग़ालिब से पूर्व एक प्रसिद्ध शायर का नाम;  सोख़=चंचल;



Monday, May 16, 2011

वो कहती है सुनो जानम मोहब्बत मोम का घर है Wo kahti hai suno janam mohabbat mom ka ghar hai

Famous shayari collection in Hindi
 वो  कहती  है  सुनो  जानम
मोहब्बत  मोम का  घर  है
तपिश ये बदगुमानी  की
कहीं  पिघला  न  दे  इस को

मैं  कहता  हूँ
जिस  दिल  मैं  ज़रा  भी   बदगुमानी   हो
वहाँ  कुछ  और  हो  तो   हो
मोहब्बत  हो  नहीं  सकती

वो  कहती  है  सदा  ऐसे  ही
क्या  तुम  मुझको  चाहो  गे
के  मैं  इस  में  कमी  बिलकुल
गवारा  कर  नहीं  सकती

मैं  कहता  हूँ
मोहब्बत  क्या  है
यह  तुम  ने  सिखाया  है
मुझे  तुम  से  मोहब्बत  के  सिवा
कुछ  भी  नहीं  आता

वो  कहती  है
जुदाई  से  बहुत  डरता  है  मेरा  दिल
के   खुद  को  तुम  से  हट  कर  देखना
मुमकिन  नहीं  है  अब

मैं  कहता  हूँ
यही  खद्शे  बहुत  मुझ  को  सतातें  हैं
मगर  सच  है  मोहब्बत  में
जुदाई  साथ  चलती  है

वो  कहती  है
बताओ  क्या  मेरे  बिन  जी  सको  गे  तुम
मेरी  बातें, मेरी  यादें, मेरी  ऑंखें
भुला  दो  गे

मैं  कहता  हूँ
कभी  इस   बात  पर  सोचा  नहीं  मैं ने
अगर  इक  पल  को  भी  सोचूँ   तो
साँसें  रुकने  लगती  हैं

वो  कहती  है  तुम्हें  मुझ से
मोहब्बत  इस  कदर  क्यों  है
के  मैं  इक  आम  सी  लड़की
तुम्हें  क्यों  खास  लगती  हूँ

मैं  कहता  हूँ
कभी  खुद  को  मेरी  आँखों  से  तुम  देखो
मेरी  दीवानगी  क्यों  है
ये   खुद  ही  जान  जाओ  गी

वो  कहती  है
मुझे  वारफ्तगी  से  देखते  क्यों  हो
के  मैं  खुद  को  बहुत
किमती  महसूस  करती  हूँ

मैं  कहता  हूँ
मता-ए-जां  बहुत अनमोल  होती  है
तुम्हें  जब  देखता  हूँ  जिन्दगी
महसूस  करता  हूँ

वो  कहती  है  मुझे अल्फाज़ के जुगनू  नहीं  मिलते
के  तुम्हें  बता  सकूं
के   दिल  में  मेरे
कितनी  मुहब्बत  है

मैं  कहता  हूँ
मुहब्बत  तो  निघाहों से  झलकती  है
तुम्हारी  खामोसी  मुझसे
तुम्हारी  बात  करती  हैं

वो  कहती  है
बताओ  न  किस  को  खोने  से  डरते  हो
बताओ  कौन  है  वो  जिसे
ये  मौसम  बुलातें  हैं

मैं कहता  हूँ
यह  मेरी  शाएरी  है  आइना  दिल  का
ज़रा  देखो  बताओ  क्या
तुम्हें  इस  में  नज़र  आया

वो  कहती  है
आतिफ  जी  बहुत  बातें  बनाते  हो
मगर  सच  है  ये  बातें
बहुत  ही  शाद  रखती  हैं

मैं  कहता  हूँ
यह  सब  बातें  ये  फशाने  इक  बहाना  है
के  पल  कुछ  जिंदगानी  के
तुम्हारे  साथ  कट  जाएँ

फिर  उस  के  बाद  ख़ामोशी  का
दिलकश  रक्स  होता  है
निगाहें   बोलती  है  और
लब  खामोश  रहते  हैं

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1 वारफ्तगी=खोया-खोयापन; 2 बदगुमानी=किसी की ओर से बुरा खयाल
3 खद्शे=डर; 4 मता-ए-जां=जान की कीमत; 5 शाद=खुश; 6 रक्स=नृत्य

                                                     

Saturday, May 14, 2011

ये तो नहीं कि ग़म नहीं ye toh nahin ki gam nahin

 ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं

तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं

अब न खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं

मेरी नशिस्त है ज़मीं
खुल्द नहीं इरम नहीं

क़ीमत-ए-हुस्न दो जहाँ
कोई बड़ी रक़म नहीं

लेते हैं मोल दो जहाँ
दाम नहीं दिरम नहीं

सोम-ओ-सलात से फ़िराक़
मेरे गुनाह कम नहीं

मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं 

                           -फ़िराक़ गोरखपुरी

दोस्त अहबाब की नज़रों में (Dost ki ahbaab nazron mein)

दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
वक़्त की बात है क्या होना था क्या हो गया मैं

दिल के दरवाज़े को वा रखने की आदत थी मुझे
याद आता नहीं कब किससे जुदा हो गया मैं

कैसे तू सुनता बड़ा शोर था सन्नाटों का
दूर से आती हुई ऐसी सदा हो गया मैं

क्या सबब इसका था, मैं खुद भी नहीं जानता हूँ
रात खुश आ गई और दिन से ख़फ़ा हो गया मैं

भूले-बिछड़े हुए लोगों में कशिश अब भी है
उनका ज़िक्र आया कि फिर नग़्मासरा हो गया मैं

                                                                 -शहरयार
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वा=खुला; नग़्मासरा= सुमधुर गाने वाला

Monday, May 9, 2011

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग (Mujhse pehli si mohabbat mere mehboob na maang)

मुझसे  पहली  सी   मोहब्बत  मेरे  महबूब   न  मांग

मैंने  समझा  था  के  तू   है  तो  दरख्शां  है  हय्यात
तेरा  ग़म   है  तो  शाम -ए-दहर  का  झगड़ा क्या  है

तेरी  सूरत  से  है  आलम  में  बहारों  को  सबात
तेरी  आँखों  के  सिवा दुनिया में  रखा  क्या  है

तू  जो  मिल  जाये  तो  तकदीर  निगूं  हो  जाये
यूँ  न  था  मैंने  फ़क़त  चाह  था  यूँ  हो  जाये

और  भी  दुःख  हैं  ज़माने  में  मोहब्बत  के  सिवा
राहतें और  भी  हैं  वस्ल  की  राहत  के  सिवा

मुझे  पहली  सी  मोहब्बत  मेरे  महबूब  न  मांग

अनगिनत  सदियों  के  तारिक  बहिमाना  तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख्वाब  में  बुनवाये  हुए

जा-ब-जा  बिकते  हुए  कूचा-ओ-बाज़ार  में  जिस्म
ख़ाक  में  लिथरे हुए , खून  में  नेहलाए  हुए

जिस्म  निकले  हुए  अमराज़  के  तन्नूरों  से
पीप  बहती   हुई  जलते  हुए   नासूरों  से

लौट  जाती  है  उधर  को  भी  नज़र  क्या  की  जिए
अब  भी  दिलकश  है  तेरा  हुस्न  मगर  क्या  की  जिए

और  भी  दुःख  हैं  मोहब्बत  के  दुःख  के  सिवा
राहतें और  भी  हैं  वस्ल  की  राहत  के  सिवा

मुझसे  पहली  सी  मोहब्बत  मेरे   महबूब  न  मांग
                                                                       -फैज़