Thursday, October 28, 2010

एहसास Ehsas

तेरे  दुःख  और  दर्द  का  मुझपर   भी  हो  ऐसा  असर
तू  रहे  भूखा  तो , मुझसे  भी  न  खाया  जाए

तेरी   मंजिल  को  अगर  रास्ता  न  मै  दिखला  सकूँ
मुझसे  भी  मेरी  मंजिल , को  न  पाया  जाए

तेरे  तपते  शीश  को  गर ,छाँव  न  दिखला  सकूँ
मेरे  सर  की  छाँव  से ,सूरज  सहा  न  जाए

तेरे  अरमानो  को  गर  मै , पंख  न  लगाव  सकूँ
मेरी  आशाओं  के  पैरों  से  चला  न  जाये

तेरे  अंधियारे  घर  को  रोशन  अगर  न  कर  सकूँ
मेरे  आंगन  के  दिए  से  भी  जला  न  जाये

तेरे  घावों  को  अगर , मरहम  से  न  सहला  सकूँ
मेरे  नन्हे  जख्म  को  बरसों  भरा  न  जाए

आग  बुझती  है  यहाँ ,गंगा  में  भी  झेलम  में  भी
कोई  बतलाये  कहाँ , जाकर  नहाया  जाए

Wednesday, October 27, 2010

हर एक बात पे कहते हो तुम के तू क्या है Har Ek Baat Pe Kahte Ho Tum ke Tu Kya Hai

हर एक बात पे कहते हो तुम, के  तू क्या है
तुम्ही कहो के ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्म न बर्क में ये अदा
कोई बताओ के वो शोखे तन्द्खु क्या है

ये रश्क है के वो होता है हमसुखन तुमसे
वगर्न खौफे बदआमोजी -ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर  लहू से पैराहन
हमारे जैब को अब हाजते रफू क्या है

जलता है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब रख, जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज जिसके लिए हो हमको बहिश्त अज़ीज़
सिवाय बाद-ए-गुलफामे मुश्कबू , क्या है

पियूँ शराब अगर खुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-कदह-ओ-कूज ओ सुबू क्या है

रही न ताकते गुफ्तार , और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पर कहिये के आरजू क्या है

हुआ है शाह का मुशाहिब,फिरे है इतराता
वगर्न शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
                                           -असदुल्ला खान मिर्जा ग़ालिब
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अंदाजे गुफ्तगू=बात करने का ढंग;  बर्क=बिजली;  शोखे तन्द्खु=क्रुध स्वभाव की
चंचलता; रश्क=इर्ष्या; हमसुखन=बात करना; खौफे बदआमोजी -ए-अदू=शत्रु की
अबभद्र शिक्षा का डर;  हाजते रफू=रफू की आवश्यकता; बहिश्त=स्वर्ग; अज़ीज़=
प्रिय;  बाद-ए-गुलफामे मुश्कबू=फूलों जैसे रंग एंव मुश्क की सुगंध के सामान मदिरा;
खुम=शराब का मटका; शीशा-ओ-कदह-ओ-कूज ओ सुबू=बोतल,प्याला,एंव कुल्हड़,मटका
गुफ्तार=बात करने की शक्ति; शाह=बादशाह; मुशाहिब=सभासद; आबरू=इज्जत;

   

  

Tuesday, October 26, 2010

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते है ye hum jo hijr mein diwar-o-dar ko dekhte hain

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते है
कभी सबा को कभी नामःबार को देखते है

वो आए घर में हमारे,खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको,कभी अपने घर को देखते है

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाजू को
ये लोग क्यूं मेरे ज़ख़्म जिगर को देखते है

तेरे जवाहिरे तर्फे कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहार को देखते है

जहाँ तेरा नक़्शे कदम देखते है
खियाबां-खियाबां इरम देखते है

दिल अशुफ्तगां खाले कुंजे दहन के
सुवैदा में सैरे अदम देखते हैं

तेरे सरू कामत से यक कद्दे आसद
क़यामत के फ़ितने को कम देखते हैं

तमाश के ऐ महवे आईन दारी!
तुझे किस तम्मना से हम देखते है

सुरागे तुफे नाल ले दागे दिल से
के शबरौ का नक़्शे कदम देखते है

बनाकर हम फकीरों का भेस 'ग़ालिब' !
तमाशः-ए-अहले करम देखते है
                             -असदुल्ला खान मिर्जा ग़ालिब
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हिज्र=विरह(जुदाई), सबा=ठंडी हवा, नामःबार=पत्र वाहक(डाकिया)
दस्त-ओ-बाजू=हाथ और पाँव, जवाहिरे तर्फे कुल=टोपी में टंके हीरे,
औजे तअले लाल-ओ-गुहार=हीरे जवाहरात के भाग्य की प्रतिष्ठा,
खियाबां-खियाबां=फूलों की क्यारी,  इरम=स्वर्ग, दिल अशुफ्तगां=दीवाना दिल,
खाले कुंजे दहन=मुह के कोने का तिल, सुवैदा=काला धब्बा(यहाँ तात्पर्य आँख की
पुतली के तिल से है), सैरे अदम=यम लोक की सैर, सरू कामत=इतना लम्बा के
सरो वृक्ष के सामान, कद्दे आसद=हज़रत आदम(पहला मानव)का कद, फ़ितने=उपद्रव,
महवे आईन दारी=आइना देखने में लीन, तुफे नाल=आर्तनाद(धिक्कार), शबरौ=रात्रि में
चलने वाला, करम=कृपालु,  

  

Monday, October 25, 2010

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक Aah ko chahiye ek umr asar hone tak

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक

दामें हर मौज में है हल्क-ए-सदकामे निहंग
देखें क्या गुजरे है कतरे पे गुहर होने तक

आशिकी सब्र तलब और तम्मना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ खूने जिगर होने तक

हमने माना के तगाफुल न करोगे,लेकिन
खाख हो जाएँगे हम,तुमको खबर होने तक

परतवे खूर से है सबनम को फ़ना की तअलीम
में भी हूँ एक इनायत की नजर होने तक

यक नज़र बेश नहीं फुर्सते हस्ती गाफ़िल
गर्मि-ए-बज़्म है इक रक्से शरर होने तक

गमे हस्ती का 'असद' ! किससे हो जुज मर्ग,इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक         
                                               -असदुल्ला खान मिर्जा ग़ालिब
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दामें हर मौज=हर एक लहर का जाल , हल्क-ए-सदकामे निहंग =सैकड़ों
मगरमच्छ के खुले जबड़े, कतरे=बूँद, गुहर=मोती हीरा ,सब्र तलब=धैर्य
की चाहत, तम्मना बेताब=बेताब तम्मना, तगाफुल=असावधानी
परतवे खूर=सूर्य की किरण,सबनम=ओस, फ़ना की तअलीम=मर मिटने की तालीम
इनायत=कृपा .दया, बेश=अधिक, फुर्सते हस्ती=जीवन की कार्य रिक्ता,
शरर=चिंगारी का नृत्य, गमे हस्ती=जीवन का दुख, 'असद'=एक व्यक्ति का नाम
जुज=सिवाय, मर्ग=मृत्यु, सहर=प्रातः काल(सुबह)
गाफ़िल=निशिचत, गर्मि-ए-बज़्म=सभा की चहल-पहल(बज़्म=सभा,गोष्ठी)

Sunday, October 24, 2010

हुस्ने मह गरचे ब हंगामें कमाल अच्छा है Husne mah garche ba hangame kamaal achha hai

हुस्ने मह गरचे ब हंगामें कमाल अच्छा है
उससे मेरा माहे खुरशीद जमाल अच्छा है

बोस देते नहीं और दिल पे है हर लहज निगाह
जी में कहते हैं के मुफ्त आए तो माल अच्छा है

और बाजार से ले आए,अगर टूट गया
सागरे जम से मेरा जामे सिफाल अच्छा है

बेतलब दें तो मजा उसमें सिवा मिलता है
वो गदा, जिसको  न हो खूं-ए-सवाल, अच्छा है

उनके देखे से आ जाती है मुँह पर रौनक
वो समझते है के बीमार का हाल अच्छा है

देखिए,पाते हैं  उशशाक बुतों से क्या फैज़
इक बिरहमन ने कहा है के ये साल अच्छा है

हम सुखन तेशो ने 'फरहाद' को 'शीरीं' से किया
जिस तरह का के किसी में हो कमाल अच्छा है

क़तर दरिया में जो मिल जाए,तो दरिया हो जाए
काम अच्छा है वो,जिसका के मआल अच्छा है

खिज्र सुल्तां को रखे खलिके अकबर सरसब्ब्ज
शाह के बाग में ये ताज निहाल अच्छा है

हमको मअलूम है जन्नत की हकीक़त, लेकिन
दिल के खुस रखे को 'ग़ालिब' ये ख्य अच्छा है  
             
                                          -असदुल्ला खान मिर्जा ग़ालिब
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हुस्ने मह=चन्द्रमा का सौंदर्य , हंगामें कमाल=पूर्णिमा के समय ,
माहे खुरशीद जमाल=यहाँ पर तात्पर्य प्रेमिका की सुन्दरता से है ( मह=चन्द्रमा,
खुरशीद=सूर्य,जमाल=सुन्दरता), बोस=चुम्बन ,  सागरे जम=जमशेद का जाम(जमशेद
-इरान का वह बादशाह जिसने एक ऐसा जाम बनवाया था जिसमे सरे संसार को देखा
जा सकता था) , जामे सिफाल=मिट्टी का प्याला , बेतलब=बिनामंगे ,सिवा=अधिक,
गदा=भिखारी , खूं-ए-सवाल=मांगने की आदत 

इब्ने मरियम हुआ करे कोई Ibne Mariam Hua Kare koi

इब्ने मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दावा करे कोई

शर्र-ओ-आईन पर मदार शाही
ऐसे कातिल का क्या करे कोई

चाल जैसे कड़ी कमाँ का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई

बात पर वाँ जबान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई

बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे खुदा करे कोई

न सुनो, गर बुरा कहे कोई
न कहो, गर बुरा करे कोई

रोक लो,गर गलत चले कोई
बख्श दो,गर खता करे कोई

कौन है जो नहीं है हाजतमंद ?
किसकी हाजत रवा करे कोई

क्या किया खिज्र ने  सिकंदर से !
अब किसे रहनुमा करे कोई !

जब तवक्को ही उठ गई 'ग़ालिब'
क्यूँ किसी का गिला करे कोई 

                         -असदुल्ला खान मिर्जा ग़ालिब
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मरियम=मरियम का बेटा 'इसा';( इसा ! वह अवतार जो मृतकों को
जीवित और रोगियों को अच्छा कर देते थे ) ,शर्र-ओ-आईन=धार्मिक नियम,
मदार=निर्भर ,जा=जगह , हाजतमंद=इच्छुक , हाजत रवा करे=इच्छा पूरी करे
खिज्र=अवतार (वह जो अमर है और भटके हुओं का मार्ग दर्शन करते हैं )
सिकंदर=(Alexander)  रहनुमा=मार्ग दर्शक , तवक्को=आशा

नुक्तः चीं है, गम-ऐ-दिल उसको सुनाए न बने Nukta chin hai gham-e-dil usko sunae na bane

नुक्तः चीं है, गम-ऐ-दिल उसको सुनाए न बने
क्या बने बात,जहाँ बात बनाए  न बने

मैं बुलाता तो हूँ उसको मगर ऐ जज्ब-ए-दिल !
उस पे बन जाए कुछ ऐसी के बिन आए न बने

खेल समझता है, कहीं छोड़ न दे,भूल न जाए
काश ! यूं भी हो के बिन मेरे सताए न बने

गैर फिरता है लिए यूं तेरे ख़त को,के अगर
कोई पूछे के ये क्या है तो छुपाए न बने

इस नजाकत का बुरा हो,वो भले हैं तो क्या
हाथ आएं, तो उन्हें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन के ये जल्वःगरी किसकी है
पर्द छोड़ा है वो उनसे के उठाए न बने

मौत की रह न देखूं ? के बिन आए न रहे
तुमको चाहूँ ? के न आओ,तो बुलाए न बने

बोझ वो सर से गिरा है के उठाए न उठे
काम वो आन पड़ा है के बनाए न बने

इश्क पर जोर नहीं है ये वो आतश 'ग़ालिब' !
के लगाए  न लगे,और बुझाए न बने

                                -असदुल्ला खान मिर्जा ग़ालिब    

Sunday, October 17, 2010

हज़ारों खाव्हिशें ऐसी, की हर ख्वाहिश पे दम निकले Hazaaron Khwaishein Aisi Ki Har Khwaish Pe Dam Nikle

हज़ारों खाव्हिशें ऐसी, की हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान,लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल,क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खूं जो चश्मे-तेर-से उम्र-भर यूं दम-ब-दम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन
बहुत बे आबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे कामत की दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेचोख़म का पेचोख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त,तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर  कलम निकले

हुई इस दौर में मंसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना,जो जहाँ में जामें-जम निकले

हुई जिनको तव्वको ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़े सितम निकले

मोहब्बत  में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देखकर जीतें हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

खुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो यां भी वही काफ़िर सनम निकले

कहाँ मैखाने का दरवाजा 'ग़ालिब',और कहाँ वाईज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था की हम निकले

                                             -असदुल्ला खान मिर्जा ग़ालिब